आज मन इतना क्यों अशांत हो रहा,
क्या है वो विचार जो इसमें बह रहा ,
शुन्य हल वाली समीकरण है शायद,
जिसके संयोग में अनगिनत संचार हो रहा ।
उत्पत्ति का कारन पूछा, बोला थोड़ा नादान है तू,
जानत सब है, मानत सब है , फिर भी विचारो में व्यर्थ ही खो रहा,
हो जाता जीना आसान अगर तू ये समझ लेता,
मन है वो बाल्यावस्था जो पालने में सो रहा,
नहीं है इसका संयोग पर अनगनित संचार हो रहा।
रब ने इसे बना कर , एक वो तरकीब निकली है,
कर ले खुद से बातें तू भी, परख बातों की लीला कितनी निराली है,
तू ही है संचार इसका, तू ही इसका संयोग है,
थाम इसे, रोक इसे, क्यों खुले आकाश में ये दौड़ रहा,
चेतावनी दे खुद को तू, जिज्ञासा इसकी न बढ़ जाए,
जगा ले निद्रा से तू खुद को, जिस पहर यह सपनो में खो रहा,
पहचान खुद को ऐ बन्दे दीवाने, तू ही है हल, जिस समस्या को तू मन में खोज रहा,
सुन ले भाषा मन की वो भी यही बोल रहा , वो भी यही बोल रहा।